ओम नीरव

सोमवार, 21 मार्च 2016

अनीता मेहता 'अना' की गीतिका

समीक्षा समारोह - 102
विधा : गीतिका
मापनी : १२२२, १२२२, १२२२,१२२२.
समान्त - आन , पदांत - हूँ मैं भी . 

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न नोचो चील कौओं की तरह , इन्सान हूँ मैं भी ,
बनाया जिस खुदा ने , उस खुदा की शान हूँ मैं भी .

कहीं माँ हूँ , कहीं पत्नी , कहीं बेटी , कहीं हमदम ,
न जो तू समझ पायेगा , वही एहसान हूँ मैं भी .

दरो दीवार भीगे आंसुओं से , नब्ज़ जमती है ,
छिनी है हर ख़ुशी , गम से हुई वीरान हूँ मैं भी .

न सौदा यूँ करो ईमान का , सोचो ज़रा समझो ,
बिकाऊ क्यूँ बना डाला , नहीं सामान हूँ मैं भी .

यही *गुरबत करेगी एक दिन नीलाम , घर-दर को ,
गिरा दी है *अना भी भूख ने , हैरान हूँ मैं भी .

तराने गा रही हूँ पर मुझे भी दर्द होता है ,
सहूँ हर दर्द जो चुपचाप, वो *बलिदान हूँ मैं भी .

छुपे हैं आंसुओं के चंद कतरे आज आँखों में ,
मिटाया जो गया जबरन , वही *अरमान हूँ मैं भी .

जली लाखों चिताएँ , औरतों के मान की *हरसू ,
सुलगती उन चिताओं का 'अना ' शमशान हूँ मैं भी .


अनीता मेहता 'अना'

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