ओम नीरव

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

हिन्दी कविता किधर चली

     ग्राम या नगर में सक्रिय कवियों, कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों, पत्र-पत्रिकाओं और फेसबुक में दृष्टव्य कविताओं, प्रकाशित और लोकार्पित होने वाली काव्यकृतियों का परिमाणात्मक आकलन किया जाये तो निस्संदेह आजकल हिन्दी कविता अपने शिखर पर है। यह स्थिति अत्यंत सुखद है लेकिन यदि हिन्दी कविता का गुणात्मक आकलन किया जाये और विशेषतः उसकी लोकप्रियता पर दृष्टि डाली जाये तो वस्तुस्थिति चिंताजनक प्रतीत होती है। आजकल कतिपय अपवादों को छोडकर कवि सम्मेलन व्यावसायिक केंद्र बन गये हैं जहाँ से लोकलुभावन चुट्कुले, अश्लील द्विअर्थी संवाद, फूहड़ हास्य, ओज के नाम पर चीख-चिल्लाहट और काव्याभिव्यक्ति के नाम पर नाटकीय अभिनय परोसा जाता है और इस सबके बीच अपने अस्तित्व की खोज करती कविता कहीं उपेक्षित स्थिति में असहाय दिखाई देती है। सामान्यतः आदान-प्रदान की परंपरा में कविसम्मेलन अखाड़े बन गये हैं जिनके संयोजक मठाधीश की भूमिका में दिखाई देते हैं। जाने कितने कवि या मंचीय कलाकार हैं जो केवल धनार्जन के लिए ही कविता के अखाड़े में उतरते हैं। धन्य हैं वे जो इस परिवेश में भी मंचों से सार्थक कविता का रसपान कराने के लिए प्रयत्नशील हैं और कविता के अस्तित्व की रक्षा के लिए घोर संघर्ष कर रहे हैं। 

 साहित्यिक कविता के नाम पर ऐसी रचनाओं का सृजन बहुलता से देखने को मिलता है जो केवल पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने के लिए होती हैं, सामान्य जन-मानस से उनका दूर का भी संबंध नहीं होता है। इनमें से कुछ कृतियाँ ऐसी होती हैं जो किसी विशेष वाद का पोषण करने लिए रची जाती हैं और कुछ ऐसी होती हैं जो किसी सम्मान या पुरस्कार को दृष्टि में रखकर रची जाती हैं। कुछ तथाकथित साहित्यकार परिष्कृत भाषा के नाम पर ऐसी क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिसे किसी वृहत शब्दकोश की सहायता के बिना समझा नहीं जा सकता है और कुछ नव प्रतीक-विधान और नव बिम्ब-योजना के नाम पर खंडित बिम्बों का ऐसा चक्रव्यूह प्रस्तुत करते है जिसका भेदन करने में पाठक और स्वयं रचनाकार भी असमर्थ रहता है। ऐसे तथाकथित साहित्यिक सृजन ने कविता को जनमानस से कोसों दूर कर दिया है। 

 कविता को जनमानस से दूर करने में बड़ी भूमिका छंद मुक्त कविता की रही है। यदि निरपेक्ष भाव से देखा जाये तो छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों काव्य-विधाएँ सम्माननीय हैं। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो छंदमुक्त कविता में छंदानुबंध और गेयता का अभाव होने के बाद भी उसमें काव्य-सौन्दर्य और संप्रेषणीयता उत्पन्न करना एक ऐसा कार्य है जो विशिष्ट काव्य-कौशल की अपेक्षा रखता है जबकि छंदबद्ध कविता में किसी सार्थक कथ्य को कविता बनाने के लिए छंदबद्धता ही पर्याप्त होती है। निश्चित रूप से छंदमुक्त कविता का सृजन अपेक्षाकृत एक बड़ी चुनौती है। छंदमुक्त सृजन के लिए यह जानना आवश्यक है कि छंदबद्धता के अतिरिक्त और कौन से तत्व हैं जो कविता को कविता बनाने के किए आवश्यक हैं। कथ्य की सार्थक नव्यता, अभिव्यक्ति की प्रखरता, उपमान-विधान, प्रतीक-विधान, बिम्ब-योजना, भावानुकूल शब्द-संयोजन, यथारूचि तुकांतता, भावप्रवणता, मारक क्षमता आदि ऐसे तत्व हैं जिनका न्यूनाधिक मात्रा में प्रयोग छंदमुक्त कविता की प्राणप्रतिष्ठा के लिए अनिवार्य प्रतीत होता है। वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। जाने कितने ऐसे रचनाकार हैं जो किसी गद्य-खंड को छोटी-बड़ी पंक्तियों में विभाजित कर कुछ शब्दों को इधर-उधर कर देते हैं और उसे छंदमुक्त कविता का नाम दे देते हैं। आश्चर्य यह देखकर होता है कि ऐसी रचनाओं को पत्र-पत्रिकाओं में भी वरीयता के साथ स्थान दिया जाता है जिसे देखकर ऐसा लगता है जैसे छंदबद्ध कविता के विरुद्ध कोई आंदोलन चल रहा हो। यह आंदोलनकारी स्थिति तब और भी उभर कर सामने आ जाती है जब छंदमुक्त रचनाकार छंदबद्ध कविता के अवगुण गिनाकर उसे उपेक्षित और अपवर्जित करने का प्रयास करते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि छंदबद्ध कविता के दो विशेष लक्षण हैं- गेयता और तुकांतता, जिनके कारण वह जन-जन के मन में सहज ही रच-बस जाती है और चिरकाल तक अविस्मरणीय बनी रहती है। यही कारण है कि तुलसी, सूर, मीरा, रसखान, महादेवी वर्मा आदि की छंदबद्ध काव्य-पंक्तियाँ जन-साधारण के ओठों पर अनायास ही थिरक जाती है जबकि अछन्द कविता अपेक्षित काव्यसौंदर्य के साथ श्रेष्ठ विचारों की संवाहक होने के बाद भी जनमानस में अपना ऐसा स्थान बनाने में असफल रहती है। उल्लेखनीय है कि कुशल संगीतज्ञ किसी गद्य को संगीतबद्ध कर गा सकते हैं जैसाकि दूरदर्शन के विज्ञापनों में प्रायः देखा जाता है लेकिन इससे वह गद्य पद्य नहीं हो जाता है जबकि छंदबद्ध कविता में लघु-गुरु वर्णों का संयोजन इसप्रकार किया जाता है कि उसे पढ़ने पर एक लय सहज ही पाठक के मन में स्थापित हो जाती है जिसे लयात्मकता या गेयता कहते हैं। दूसरे शब्दों में छंद लय का व्याकरण है। लय प्रायः अनुकरण से ग्रहण की जाती है किन्तु उसकी सटीकता का परीक्षण छंद की कसौटी पर होता है। लयात्मकता के कारण ही छंदबद्ध कविता को पढ़ने पर एक विशेष आनंद का अनुभव होता है जो छंदमुक्त कविता से प्राप्त नहीं हो पाता है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी काव्य-तत्व छंदमुक्त कविता में भी समान रूप से समाहित हो सकते है और उसे उत्कृष्टता प्रदान कर सकते हैं। वस्तुतः विभिन्न काव्य-तत्वों के समावेश से रचना को उत्कृष्टता प्रदान करना रचनाकार की व्यक्तिगत अभिरुचि और क्षमता पर निर्भर करता है, चाहे कविता छंदबद्ध हो या छंदमुक्त। 

 विचारणीय प्रश्न यह भी है कि कविता किस के लिए लिखी जाती है- जन-साधारण के लिए या विद्वानों के लिए? पुस्तकालयों के लिए या समाज के लिए? स्पष्ट है कि सत्यं-शिवं-सुंदरम् को साकार करने वाली लोकमंगलकारी कविता सदैव जन-साधारण और समाज के लिए लिखी जाती है। वह कविता कविता क्या, जो जन-मानस को भाव-विभोर न कर सके। गीत के विषय में कही गयी मेरी यह उक्ति दृष्टव्य है- 

प्रत्येक गीत का है सर्वोच्च पारितोषिक, 

एकांत में किसी का वह गीत गुनगुनाना। 

 इस कसौटी पर वही कविता खरी उतर सकती है जो छंदबद्ध हो, तुकांत हो और सहज संप्रेषणीय हो। छंदमुक्त कविता एक सुविधाजनक विकल्प के रूप में ग्राह्य हो सकती है किन्तु वैसी लोकमंगलकारी, लोकरंजक और लोकप्रिय नहीं हो सकती है जैसी छंदबद्ध कविता सदैव से रही है। कुछ लोग समीक्षा से बचने के लिए अपनी कविता को ‘स्वांतः सुखाय’ कह देते हैं और तुलसी दास का उदाहरण प्रस्तुत कर देते हैं। उन्हें आत्म-निरीक्षण करना चाहिए कि उनके कथन में कितनी सत्यता है और इस बात का भी आकलन करना चाहिए कि क्या उनका ‘स्व’ तुलसी के ‘स्व’ से समानता रखता है। ध्यातव्य है कि तुलसी का स्व राममय होने के कारण इतना विस्तार पा चुका था कि उसमें ही ‘पर’ भी समाहित हो चुका था और वह अंततः ‘सर्व’ हो गया था। इसके विपरीत आजकल देखा तो यह जाता है कि प्रायः जो अपनी रचना को स्वांतः सुखाय बताते हैं वही वाह-वाही, सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करने की दौड़ में सबसे आगे दिखाई देते हैं। 

 कवि और कविता के प्रति जनभावना में अरुचि का एक कारण कवियों का चरित्र भी है जो मंच पर कुछ होता है जबकि मंच के पीछे कुछ और होता है। आवश्यक नहीं है कि रचनाकार सदैव वही लिखे जिसे वह जिये किन्तु उसका चरित्र उसकी कविता से संप्रेषित संदेश के ठीक विपरीत भी नहीं होना चाहिए। किसी ने सच ही कहा है कि एक अच्छा कवि होने के किए एक अच्छा व्यक्ति होना आवश्यक है। यह कटु सत्य है कि आज का समाज कवि और कविता को गंभीरता से नहीं ले रहा है और कवि के पास वह आत्मगौरव नहीं रहा है कि वह गर्व से कह सके -‘मैं कवि हूँ’। इस आत्मगौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए मेरी दृष्टि में आवश्यक है- (1) छंदमुक्त कविता का उचित सम्मान करते हुए छंदबद्ध कविता को वरीयता दी जाये (2) कविता का सृजन पूस्तकालयों की शोभा और पुरस्कारों-सम्मानों के लिए नहीं अपितु जन-साधारण के लिए किया जाये (3) गंभीर बात को सरल शब्दों में व्यक्त करने का अभ्यास किया जाये (4) प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता बढ़ाने के लिए ही किया जाये (5) कवि सम्मेलन के मंच से सत्यं-शिवं-सुंदरम् को साकार करने वाली सुबोध लोकप्रिय रचनाओं को प्रस्तुत किया जाये और उच्छृंखल-अमर्यादित संवादों को अपवर्जित किया जाये (6) कवियों द्वारा आचरण में अपनी गरिमा को ध्यान में रखा जाये।

 कवि-समाज को मिलकर आज स्वयं आत्म-मंथन करना होगा और चिंतन करना होगा कि कविता को किस प्रकार उसकी खोयी हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाई जा सकती है। 

- ओम नीरव 

अध्यक्ष, कवितालोक सृजन संस्थान लखनऊ। 

चलभाष- 8299034545