ओम नीरव

सोमवार, 21 मार्च 2016

पारुल ’पंखुरी’ की प्रथम गीतिका

समीक्षा समारोह – 101
विधा – गीतिका (हिंदी गजल)
मापनी—१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
पदान्त – हैं
समान्त – आले
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कहीं पर रात रोशन है कहीं पर दिन भी' काले हैं
बड़ी मुश्किल से पलकों पर जमीं आँसू संभाले हैं
लगी थी आस अम्बर से दिया उसने भी' है धोखा
बिखर कर रह गए सपने लगे खुशियों पे' जाले हैं
पड़ा इक टाट का छप्पर बिलखते चार हैं बरतन
जुटाने शाम की रोटी कहाँ से ये निकाले हैं
जमीं का कर दिया सौदा नहीं था भाव तक जाना
तरस के पल रहे थे जो स्वप्न सब बेच डाले हैं
मचलकर पास आती थी ख़ुशी भी मुस्कुराती थी
यहाँ अब गोद में गम है..ग़मों से प्रीत पाले हैं
चढ़ाकर ताव मूँछों पर बहाते थे पसीना जो
झुकाया आज बूंदों ने बने बारिश निवाले हैं
करूँगा जिस्म मिट्टी में इसी मिट्टी में सोऊंगा
मचलती भूख बच्चों की खुदा तेरे हवाले है

पारुल’पंखुरी’

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