ओम नीरव

सोमवार, 21 मार्च 2016

शिव नारायण यादव की गीतिका

समीक्षा-समारोह-102
विधा-गीतिका
मापनी-22,22,22,22..!
समांत-आना ।
पदांत-चाहूँ ।

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आँसू को सुलगाना चाहूँ ।
जीवन में मुस्काना चाहूँ ।
अपनी दुनिया आप जला के,
तुम सँग नेह लगाना चाहूँ ।
मोह महा तम काली रातें,
जुगनू को चमकाना चाहूँ ।
हर कण-कण है पोषित तुमसे,
जीवन को विखराना चाहूँ ।
दुख की बदली घिर आयी है,
बादल-राग सुनाना चाहूँ ।
रोते-रोते जीवन बीता,
हे प्रभु अब तो गाना चाहूँ ।
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      ------शिव नारायण यादव

अजय जादौन का गीत

समीक्षा समारोह-102
विधा- गीत
स्थायी-2222 2222
अंतरा-2222 2222
स्थाई तुकान्त -आना
पदांत -होगा

तुमको आज बताना होगा ।।
दिल का प्यार जताना होगा ।।
तुमको नेह नहीं था हमसे,
फिर क्यों ये नजरें उलझायीं ।।
रोज पहेली नयी रचाकर,
तुमने कभी नहीं सुलझायीं।।
अब इनको सुलझाना होगा ।
दिल का प्यार जताना होगा ।१।
अपनापन नजरों में देखा।
पर होठों पे कभी न आया ।।
आँखों में आकर्षण कितना,
दूर कभी मैं ना हो पाया ।।
अब तो पास बुलाना होगा।
दिल का प्यार जताना होगा।।२।।
करो फैसला अब तो जल्दी ,
अब अंतिम निर्णय हो जाए।
फिर पछताने से क्या होगा,
जब तक देर बहुत हो जाए।।
मुझको भी अब जाना होगा।।
दिल का प्यार जताना होगा ।।३।।
           अजय जादौन
            खैर,अलीगढ़

अनीता मेहता 'अना' की गीतिका

समीक्षा समारोह - 102
विधा : गीतिका
मापनी : १२२२, १२२२, १२२२,१२२२.
समान्त - आन , पदांत - हूँ मैं भी . 

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न नोचो चील कौओं की तरह , इन्सान हूँ मैं भी ,
बनाया जिस खुदा ने , उस खुदा की शान हूँ मैं भी .

कहीं माँ हूँ , कहीं पत्नी , कहीं बेटी , कहीं हमदम ,
न जो तू समझ पायेगा , वही एहसान हूँ मैं भी .

दरो दीवार भीगे आंसुओं से , नब्ज़ जमती है ,
छिनी है हर ख़ुशी , गम से हुई वीरान हूँ मैं भी .

न सौदा यूँ करो ईमान का , सोचो ज़रा समझो ,
बिकाऊ क्यूँ बना डाला , नहीं सामान हूँ मैं भी .

यही *गुरबत करेगी एक दिन नीलाम , घर-दर को ,
गिरा दी है *अना भी भूख ने , हैरान हूँ मैं भी .

तराने गा रही हूँ पर मुझे भी दर्द होता है ,
सहूँ हर दर्द जो चुपचाप, वो *बलिदान हूँ मैं भी .

छुपे हैं आंसुओं के चंद कतरे आज आँखों में ,
मिटाया जो गया जबरन , वही *अरमान हूँ मैं भी .

जली लाखों चिताएँ , औरतों के मान की *हरसू ,
सुलगती उन चिताओं का 'अना ' शमशान हूँ मैं भी .


अनीता मेहता 'अना'

डॉ रंजना वर्मा दोहे

समीक्षा समारोह - 102
विधा - दोहा छंद
शिल्प विधान -- 13,11,13,11 मात्राओं के चार चरण, सम चरण तुकांत, सैम चरणों के अंत में 21 मात्रा क्रम।
तुकांत विधान क्रमश: -- (1) ऊल (2) आर (3) एत (4) ऊल (5) ऊप।

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धक धक जलती दोपहर, गर्म राख सी धूल ।
मौसम बैरी ले गया , चुन बयार के फूल ।।
तपी दोपहर जेठ की , लू बन गयी बयार ।
सूरज हिटलर सा हुआ , करता अत्याचार ।।
भू का तल तपता तवा , धूप तपे ज्यों रेत ।
सूखे अम्बर के नयन , टक टक ताकें खेत ।।
पग घायल कैसे चलें , कदम कदम पर शूल ।
रहे गुलमोहर सींचते , कैसे उगा बबूल ।।
ग्रीष्म ग्रन्थ का कर रही , आज विमोचन धूप ।
पहले तो देखा नहीँ , ऐसा रवि का रूप ।।

-- डॉ रंजना वर्मा

पारुल ’पंखुरी’ की प्रथम गीतिका

समीक्षा समारोह – 101
विधा – गीतिका (हिंदी गजल)
मापनी—१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
पदान्त – हैं
समान्त – आले
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कहीं पर रात रोशन है कहीं पर दिन भी' काले हैं
बड़ी मुश्किल से पलकों पर जमीं आँसू संभाले हैं
लगी थी आस अम्बर से दिया उसने भी' है धोखा
बिखर कर रह गए सपने लगे खुशियों पे' जाले हैं
पड़ा इक टाट का छप्पर बिलखते चार हैं बरतन
जुटाने शाम की रोटी कहाँ से ये निकाले हैं
जमीं का कर दिया सौदा नहीं था भाव तक जाना
तरस के पल रहे थे जो स्वप्न सब बेच डाले हैं
मचलकर पास आती थी ख़ुशी भी मुस्कुराती थी
यहाँ अब गोद में गम है..ग़मों से प्रीत पाले हैं
चढ़ाकर ताव मूँछों पर बहाते थे पसीना जो
झुकाया आज बूंदों ने बने बारिश निवाले हैं
करूँगा जिस्म मिट्टी में इसी मिट्टी में सोऊंगा
मचलती भूख बच्चों की खुदा तेरे हवाले है

पारुल’पंखुरी’

कुलदीप बृजवासी की गीतिका

समीक्षा समारोह -101
विधा
-- गीतिका 
मापनी-- 2122 2122 2122 212
समान्त-- आती
पदान्त-- तो है
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मूढ हूँ नादान हूँ लेकिन कलम भाती तो' है
लेखनी के पथ खडा जयश्री नजर पाती तो' है.
है कहावत पूर्वजों की याद अब आती मुझे
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है
आज तक लिखता रहा अन्याय और मैं बेबसी
कर चुका हूँ एक गलती अब समझ आती तो है
काश मैं भी हास्य के ही चुटकुले दो चार कहता
मर गया उस्ताद बेशक याद रख नाती तो' है
सच सदा हर रोज कहना जिन्दगी भर याद रख
हो भले ही हार लेकिन जीत दिखलाती तो' है
रो रही है अब गजल उर्दू से' हिन्दी हो गई
द्वेष की अब भावनाएँ आज अपनाती तो' है
हैं बहुत मजबूरियाँ कुलदीप कवितापाठ में
द्रोपदी के चीर में सब लाज भी जाती तो' है

                 ------कुलदीप बृजवासी

गुरचरन मेहता 'रजत' की गीतिका

समीक्षा समारोह - 101
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विधा - गीतिका 
मापनी ~ 212 212 212 212
समान्त ~ ई
पदान्त ~ को नमन
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दोस्तों को नमन दोस्ती को नमन ।
ज़िंदगी से मिली हर खुशी को नमन ।
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राज़ दिल के सुने आँख में भर नमी,
दोस्ती में छिपी बंदगी को नमन ।
~~~
कड़वे जीवन में भी शर्करा घुल गई,
प्रेम रस से बनी चाशनी को नमन ।
~~~
जगमगाते सितारे भी कहते यही,
चाँद से जो खिली चाँदनी को नमन ।
~~~
हम हँसे साथ में साथ रोए भी थे,
आँसुओं को नमन उस हँसी को नमन ।
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मिल रही जो 'रजत' को मुहब्बत यहाँ,
आज मन की उसी ताज़गी को नमन ।।
            --- गुरचरन मेहता 'रजत'